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यु॒वं न॑रा स्तुव॒ते कृ॑ष्णि॒याय॑ विष्णा॒प्वं॑ ददथु॒र्विश्व॑काय। घोषा॑यै चित्पितृ॒षदे॑ दुरो॒णे पतिं॒ जूर्य॑न्त्या अश्विनावदत्तम् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yuvaṁ narā stuvate kṛṣṇiyāya viṣṇāpvaṁ dadathur viśvakāya | ghoṣāyai cit pitṛṣade duroṇe patiṁ jūryantyā aśvināv adattam ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

यु॒वम्। न॒रा॒। स्तु॒व॒ते। कृ॒ष्णि॒याय॑। वि॒ष्णा॒प्व॑म्। द॒द॒थुः॒। विश्व॑काय। घोषा॑यै। चि॒त्। पि॒तृ॒ऽसदे॑। दु॒रो॒णे। पति॑म्। जूर्य॑न्त्यै। अ॒श्वि॒नौ॒। अ॒द॒त्त॒म् ॥ १.११७.७

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:117» मन्त्र:7 | अष्टक:1» अध्याय:8» वर्ग:14» मन्त्र:2 | मण्डल:1» अनुवाक:17» मन्त्र:7


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर अध्यापक और उपदेश करनेवालों के गुण अगले मन्त्र में कहते हैं ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (नरा) सब कामों में प्रधान और (अश्विनौ) सब विद्याओं में व्याप्त सभासेनाधीशो ! (युवम्) तुम दोनों (कृष्णियाय) खेती के काम की योग्यता रखने और (स्तुवते) सत्य बोलनेवाले (पितृषदे) जिसके समीप विद्या विज्ञान देनेवाले स्थित होते (विश्वकाय) और जो सभों पर दया करता है उस राजा के लिये (दुरोणे) घर में (विष्णाप्वम्) जिस पुरुष से खेती के भरे हुए कामों को प्राप्त होता उस खेती रखनेवाले पुरुष को (ददथुः) देओ (चित्) और (जूर्य्यन्त्यै) बुड्ढेपन को प्राप्त करनेवाली (घोषायै) जिसमें प्रशंसित शब्द वा गौ आदि के रहने के विशेष स्थान हैं, उस खेती के लिये (पतिम्) स्वामी अर्थात् उसकी रक्षा करनेवाले को (अदत्तम्) देओ ॥ ७ ॥
भावार्थभाषाः - राजा आदि न्यायाधीश खेती आदि कामों के करनेवाले पुरुषों से सब उपकार पालना करनेवाले पुरुष और सत्य न्याय को प्रजाजनों को देकर उन्हें पुरुषार्थ में प्रवृत्त करें। इन कार्य्यों की सिद्धि को प्राप्त हुए प्रजाजनों से धर्म के अनुकूल अपने भाग को यथायोग्य ग्रहण करें ॥ ७ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनरध्यापकोपदेशकगुणा उपदिश्यन्ते ।

अन्वय:

हे नराश्विनौ युवं युवां कृष्णियाय स्तुवते पितृषदे विश्वकाय दुरोणे विष्णाप्वं पतिं ददथुः। चिदपि जूर्यन्त्यै घोषायै पतिमदत्तम् ॥ ७ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (युवम्) युवाम् (नरा) प्रधानौ (स्तुवते) सत्यवक्त्रे (कृष्णियाय) कृष्णं विलेखनं कृषिकर्मार्हति यस्तस्मै (विष्णाप्वम्) विष्णानि कृषिव्याप्तानि कर्माण्याप्नोति येन पुरुषेण तम् (ददथुः) (विश्वकाय) अनुकम्पिताय समग्राय राज्ञे (घोषायै) घोषाः प्रशंसिताः शब्दा गवादिस्थित्यर्थाः स्थानविशेषा वा विद्यन्ते यस्यां तस्यै (चित्) अपि (पितृषदे) पितरो विद्याविज्ञापका विद्वांसः सीदन्ति यस्मिँस्तस्मै (दुरोणे) गृहे (पतिम्) पालकं स्वामिनम् (जूर्य्यन्त्यै) जीर्णावस्थाप्राप्तनिमित्तायै (अश्विनौ) (अदत्तम्) दद्यातम् ॥ ७ ॥
भावार्थभाषाः - राजादयो न्यायाधीशाः कृष्यादिकर्मकारिभ्यो जनेभ्यः सर्वाण्युपकरणानि पालकान् पुरुषान् सत्यन्यायं च प्रजाभ्यो दत्वा पुरुषार्थे प्रवर्त्तयेयुः। एताभ्यः कार्य्यसिद्धिसम्पन्नाभ्यो धर्म्यं स्वांशं यथावत्संगृह्णीयुः ॥ ७ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - राजा इत्यादी न्यायाधीशांनी कृषक कार्य करणाऱ्यांशी व सर्व उपकार आणि पालन करणाऱ्या पुरुषांशी तसेच प्रजेशी सत्य न्यायाने वागून त्यांना पुरुषार्थात प्रवृत्त करावे. या कार्याची सिद्धी झालेल्या प्रजेकडून धर्मानुकूल आपला हिस्सा यथायोग्यरीत्या घ्यावा. ॥ ७ ॥